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Vat Savitri Vrat Puja Samagri list: Puja vidhi of vat savitri vrat ...

नई दिल्ली, लाइफस्टाइल डेस्क। Vat Savitri Vrat 2020: 22 मई को वट सावित्री व्रत है। यह पर्व हर साल ज्येष्ठ माह की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। हालांकि, कई जगहों पर इसे ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन विवाहित महिलाएं अपने सुहाग के दीर्घायु होने के लिए व्रत-उपासना करती हैं। धार्मिक मान्यता है कि जो व्रती सच्ची निष्ठा और भक्ति से इस व्रत को करती हैं, उनकी न केवल सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, बल्कि पुण्य प्रताप से पति पर आई सभी बला टल जाती है।


वट सावित्री व्रत शुभ मुहूर्त
इस दिन शुभ मुहूर्त ब्रह्म बेला से लेकर रात के 11 बजकर 08 मिनट तक है। अतः आप दिन में किसी समय वट देव सहित माता सावित्री की पूजा आराधना कर सकते हैं। इस साल वट सावित्री व्रत पूजा के लिए आपको चौघड़िया तिथि की जरूरत नहीं पड़ेगी।
वट सावित्री व्रत का महत्व
इस दिन विशेष संयोग बना है। जब ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शनि जयंती और वट सावित्री व्रत भी मनाया जा रहा है। ऐसा कहा जाता है कि माता सावित्री पतिव्रता धर्म का पालन करते हुए अपने पति को यमराज के प्राण पाश से छुड़ाकर ले आई थी। अतः इस व्रत का अति विशेष महत्व है। इस दिन पूजा-उपासना करना विशेष फलकारी होती है।
वट सावित्री व्रत पूजा विधि
व्रती को चतुर्दशी के दिन से तामसी भोजन का परित्याग कर देना चाहिए। साथ ही खान-पान में लहसुन और प्याज का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इसके अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर घर की साफ-सफाई करें। इसके बाद गंगाजल युक्त पानी से स्नान-ध्यान करें और सर्वप्रथम व्रत संकल्प लें। फिर पवित्र वस्त्र पहनें, और सोलह श्रृंगार करें। जब आप परिधान और श्रृंगार का वरण कर लें। इसके बाद सबसे पहले सूर्य देव को जल का अर्घ्य दें।
कथा श्रवण जरूर करें
फिर बांस की टोकरी में पूजा की सभी सामग्रियों को रखकर नजदीक के वट वृक्ष के पास जाकर उनकी पूजा प्रारम्भ करें। इसके लिए सबसे पहले उन्हें जल का अर्घ्य दें। फिर सोलह श्रृंगार अर्पित करें। इसके बाद वट देव की पूजा फल, फूल, पूरी पकवान आदि से करें। अब रोली की मदद से अपनी क्षमता अनुसार वरगद वृक्ष की परिक्रमा 5, 7, 11 या 21 बार करें। इसके बाद कथा श्रवण करें। आप दिन भर उपवास भी रख सकती हैं। शाम में आरती अर्चना के बाद फलाहार करें। अगले दिन नित्य दिनों की तरह पूजा-पाठ के बाद व्रत खोल ब्राह्मणों को दान दें। फिर भोजन ग्रहण करें।


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 माना जाता है कि सोमवार और पंचमी एक साथ आने से सोमवार का व्रत रखना और पंचमी पूजा दोनों का महत्व बढ़ जाता है। ऐसे योग में भगवान शिव की उपासना करने और नागों की पूजा करने से भोलेनाथ के भक्तों पर विशेष कृपा बरसती है। यह दिन पितृ दोष और काल सर्प दोष दूर करने के लिए बहुत ही उत्तम माना गया है।
पंचमी हिन्दू पंचाग की एक तिथि है। इस तिथि का हिन्दुओं में बड़ा ही धार्मिक महत्त्व माना जाता है। पंचमी तिथि पर किये गए कार्य शुभफल प्रदान करने वाले माने जाते हैं।

पंचमी में सूर्य और चन्द्र का अन्तर 49° से 60° तक होने पर शुक्ल पक्ष की पंचमी और 229° से 240° तक अन्तर होने पर कृष्ण पक्ष की पंचमी होती है।
पंचमी तिथि का स्वामी सर्प या नाग होता है। यह 'पूर्णा संज्ञक तिथि' है।
इसकी विशेष संज्ञा ‘श्रीमती’ है।
पौष मास के दोनों पक्षों में यह तिथि शून्य फल देती है।
शनिवार के दिन पंचमी पड़ने पर मृत्युदा होती है जिससे इसकी शुभता में कमी आ जाती है। गुरुवार के दिन यही पंचमी सिद्धिदा होकर विशेष शुभ फल देने वाली हो जाती है।
पंचमी तिथि की दिशा दक्षिण है।
शुक्ल पंचमी में शिववास कैलास पर तथा कृष्ण पंचमी में वृषभ पर होने से क्रमशः सुख तथा श्री-प्राप्तिकारक होता है। अतः इसमें शिवार्चन के समस्त उपचार शुभ होते हैं।
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बगलामुखी जयंती (Baglamukhi Jayanti 2020): आज बगलामुखी जयंती है. हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मां बगलामुखी जयंती मनाई जाती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन मां बगलामुखी की उत्पत्ति हुई थी. मां का एक अन्य नाम देवी पीताम्बरा भी है. मां को पीला रंग अति प्रिय है. मां बगलामुखी की पूजा में उन्हें पीले रंग के फूल, पीले रंग का चन्दन और पीले रंग के वस्त्र अर्पित करने चाहिए. माना जाता है कि मां बगलामुखी की पूजा करने से जातक की सभी बाधाओं और संकटों का नाश होता है और इसके साथ ही शत्रु पराजित होते हैं.

बगलामुखी मंत्र:
ॐ ह्लीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्लीं ॐ स्वाहा.

मां बगलामुखी की कथा:

पौराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार मच गया. कई लोग संकट में पड़ गए और संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी चिंतित हो गए.

इस समस्या का कोई हल न पा कर वह भगवान शिव को स्मरण करने लगे तब भगवान शिव ने कहा शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी शरण में जाएं. तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर के निकट पहुंच कर कठोर तप किया. भगवान विष्णु के तप से देवी शक्ति प्रकट हुईं. उनकी साधना से महात्रिपुरसुंदरी प्रसन्न हुईं. सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीड़ा करती महापीतांबरा स्वरूप देवी के हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न हुआ. इस तेज से ब्रह्मांडीय तूफान थम गया. उस समय रात्रि को देवी बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्रैलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी ने प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया और तब सृष्टि का विनाश रूक सका.
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भौम प्रदोष व्रत कथा (Bhauma Pradosh Vrat Katha): आज 5 मई को भौम प्रदोष व्रत है. इसे मंगल प्रदोष भी कहा जाता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जो भक्त प्रदोष व्रत रखता है उसकी सभी कामनाओं की पूर्ती होती है, मंगल दोष शांत होता है और दरिद्रता का नाश होता है. प्रदोष व्रत की कथा भी काफी पुण्य फल देने वाली मानी जाती है. आइए पढ़ते है भौम प्रदोष व्रत की कथा....

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, प्राचीन समय में एक नगर में एक वृद्धा रहती थी. उसका एक ही पुत्र था. वृद्धा की हनुमानजी पर गहरी आस्था थी. वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमानजी की आराधना करती थी. एक बार हनुमानजी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची.

हनुमानजी साधु का वेश धारण कर वृद्धा के घर गए और पुकारने लगे- है कोई हनुमान भक्त, जो हमारी इच्छा पूर्ण करे?
पुकार सुन वृद्धा बाहर आई और बोली- आज्ञा महाराज.
हनुमान (वेशधारी साधु) बोले- मैं भूखा हूं, भोजन करूंगा, तू थोड़ी जमीन लीप दे.
वृद्धा दुविधा में पड़ गई. अंतत: हाथ जोड़कर बोली- महाराज. लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें, मैं अवश्य पूर्ण करूंगी.
साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा- तू अपने बेटे को बुला. मैं उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊंगा.
यह सुनकर वृद्धा घबरा गई, परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध थी. उसने अपने पुत्र को बुलाकर साधु के सुपुर्दकर दिया.
वेशधारी साधु हनुमानजी ने वृद्धा के हाथों से ही उसके पुत्र को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई. आग जलाकर दु:खी मन से वृद्धा अपने घर में चली गई.
इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा को बुलाकर कहा- तुम अपने पुत्र को पुकारो ताकि वह भी आकर भोग लगा ले.

इस पर वृद्धा बोली- उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ.

लेकिन जब साधु महाराज नहीं माने तो वृद्धा ने अपने पुत्र को आवाज लगाई. अपने पुत्र को जीवित देख वृद्धा को बहुत आश्चर्य हुआ और वह साधु के चरणों में गिर पड़ी.

हनुमानजी अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए और वृद्धा को भक्ति का आशीर्वाद दिया
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चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को माता लक्ष्मी के निमित्त व्रत किया जाता है। इसे श्रीलक्ष्मी व्रत व श्रीपंचमी व्रत भी कहते हैं। इस बार यह व्रत 29 मार्च, रविवार को है। इस व्रत को करने से धन व ऐश्वर्य मिलता है। लक्ष्मी पंचमी व्रत मार्गशीर्ष और माघ माह के शुक्लपक्ष की पंचमी पर भी किया जाता है। जिनका महत्व भी अलग-अलग होता है। लेकिन साल की पहली श्री पंचमी होने से चैत्र माह की पंचमी को महत्वपूर्ण माना गया है।
पूजा विधि
  1. यह व्रत चैत्र शुक्ल पंचमी को किया जाता है इसलिए चतुर्थी तिथि को नहाकर साफ कपड़े पहनकर व्रत का संकल्प लें।
  2. घी, दही एवं भात का भोजन करें। पंचमी को स्नान करके व्रत रखें  देवी लक्ष्मी का पूजन करें।
  3. पूजा में धान्य (गेहूं, चावल, जौ आदि), हल्दी, अदरक, गन्ना व गुड़ आदि अर्पित करके कमल के पुष्पों का लक्ष्मी-सूक्त से हवन करें।
  4. कमल न मिले तो बेल के टुकड़ों का और वे भी न हों तो केवल घी का हवन करें।
  5. इस दिन कमल से युक्त तालाब में स्नान करके सोना दान करने से लक्ष्मीजी अति प्रसन्न होती है।

व्रत और पूजा का महत्व
श्रीपंचमी का व्रत करने से महिलाओं को सौभाग्य प्राप्ति होती है। घर में समृद्धि और सुख बढ़ता है। दरिद्रता और रोग नहीं होते। इस व्रत के प्रभाव से परिवार के सदस्यों की उम्र बढ़ती है। कई जगह ये व्रत मनोकामना पूरी करने के संकल्प के साथ किया जाता है। चैत्र माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को लक्ष्मी जी पूजा और व्रत करने से हर तरह की सिद्धि प्राप्त होती है और सोचे हुए काम भी पूरे हो जाते हैं।
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कामदा एकादशी का उल्लेख विष्णु पुराण में किया गया है। कामदा एकादशी को समस्त सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए बेहद खास माना गया है। कामदा एकादशी को फलदा एकादशी भी कहा जाता है। इस बार ये एकादशी व्रत चैत्र शुक्ल एकादशी 4 अप्रैल को पड़ रही है। मनुष्य कामदा एकादशी का व्रत जिस कामना के साथ करता है उसकी पूर्ति होती है। साथ ही पारिवारिक जीवन से संबंधित समस्याओं का स्वतः समाधान हो जाता है।

पूजा विधि
  1. शास्त्रों के अनुसार इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है। 
  2. व्रत के एक दिन पहले एक बार भोजन करके भगवान का स्मरण किया जाता है। 
  3. कामदा एकादशी व्रत के दिन स्नान के बाद साफ कपड़े पहनकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए। 
  4. व्रत का संकल्प लेने के बाद भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। 
  5. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा में फल, फूल, दूध, तिल और पंचामृत आदि सामग्री का प्रयोग करना चाहिए। 
  6. एकादशी व्रत की कथा सुनने का भी विशेष महत्व है। 
  7. द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। 

कामदा एकादशी का महत्व
  1. धर्म ग्रंथों के अनुसार, कामदा एकादशी व्रत के पुण्य से जीवात्मा को पाप से मुक्ति मिलती है।
  2. यह एकादशी कष्टों का निवारण करने वाली और मनोवांछित फल देने वाली होने के कारण फलदा और कामना पूर्ण करने वाली होने से कामदा कही जाती है।
  3. इस एकादशी की कथा व महत्व भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था।
  4. इससे पूर्व राजा दिलीप को यह महत्व वशिष्ठ मुनि ने बताया था।
  5. चैत्र मास में भारतीय नव संवत्सर की शुरुआत होने के कारण यह एकादशी अन्य महीनों की अपेक्षा और अधिक खास महत्व रखती है। शास्त्रों के अनुसार जो मनुष्य कामदा एकादशी का व्रत करता है वह प्रेत- आत्मा की योनि से मुक्ति पाता है।
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उपवास दरअसल शरीर और मस्तिष्क को सत्व की स्थिति में रखने की एक कोशिश है। यह कोशिश एक दिन से शुरू हो कर तीन चार, आठ दस दिन या महीने साल बाहर तक किसी भी अवधि के लिए भी हो सकती हैं।
मूल बात है समर्पण और अनुशासन। उपवास के दौरान बीच में कुछ खाया भी जा सकता है- जैसे फलाहार या दिन में एक समय भोजन। उपवास के दौरान राजसी-तामसी वस्तुओं के इस्तेमाल से पूरा परहेज बरतने का अनुशासन बताया गया है। 
उपवास में दूध घी मेवे फल आहार इसलिए मान्य है कि ये भगवान को अर्पित की जाने वाली वस्तुएं हैं। प्रकृति प्रदत्त यह भोजन शरीर में सात्विकता बढ़ाता है। उपवास के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठानों का भी व्यापक अभिप्राय है। 
डा केके अग्रवाल के अनुसार असल में इस तरह के अनुष्ठानों से शरीर में पैदा होने वाले विषैले पदार्थों के प्रभाव को समाप्त किया जा सकता है। शारीरिक शुद्धि के लिए तुलसी जल, अदरक का पानी या फिर अंगूर इस दौरान ग्रहण किया जा सकता है। 
मानसिक शुद्धि के के लिए जप, ध्यान, सत्संग, दान और धार्मिक सभाओं में भाग लेना चाहिए। उपवास की प्रक्रिया सिर्फ कम खाने या सात्विक भोजन से ही पूर्ण नहीं हो जाती। इस दौरान सुबह-शाम ध्यान करना भी जरूरी है। इससे मन शांत होता है और अच्छाई के संस्कार बढ़ते है।

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मार्ग शीर्ष महीने की कृष्ण पक्ष के आठवें दिन ( अष्टमी ) कालभैरव अष्टमी का व्रत रखा जाता है। शिवपुराण के अनुसार इसी दिन भगवान महादेव शिव ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया था। इन्हें काशी का कोतवाल माना जाता है। कालभैरव अष्टमी व्रत भय और दुखों से मुक्ति दिलाने वाला माना गया है। इस दिन विशेष रूप से शिव जी की भैरव और ईशान नाम से पूजा की जाती है। साल 2016 में यह व्रत 21 नवंबर को रखा जाएगा। 



काल  भैरव अष्टमी से जुड़ी कथा ( कैसे हुई कालभैरव की उत्पत्ति )
एक कथा के अनुसार एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी ने शिव जी के रूप-रेखा और वेश-भूषा पर कुछ अपशब्द बोल दिया, जिससे वह बहुत क्रोधित हुए तथा उनके शरीर से छाया के रूप में काल भैरव की उत्पत्ति हुई। मार्गशीर्ष माह की अष्टमी तिथि को ही काल भैरव की उत्पत्ति हुई थी। क्रोध से उत्पन्न काल भैरव जी ने अपने नाखून से ब्रह्मा जी का सिर काट दिया। इसके बाद ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए काल भैरव तीनों लोकों में घूमें परन्तु कही भी उन्हें शांति नहीं मिली, अंत में घूमते हुए वह काशी पहुंचे जहां उन्हें शांति प्राप्त हुई। वहां एक भविष्यवाणी हुई जिसमें भैरव बाबा को काशी का कोतवाल बनाया गया तथा वहां रहकर लोगों को उनके पापों से मुक्ति दिलाने के लिए वहां बसने को कहा गया।
कालरव अष्टमी (व्रत विधि )
अष्टमी के दिन प्रातः स्नान करने के पश्चात पितरों का तर्पण और श्राद्ध कर कालभैरव की पूजा करनी चाहिए। इस दिन व्यक्ति को पूरे दिन व्रत रखकर आधी रात के समय धूप,दीप,गंध,काले तिल,उड़द, सरसों तेल आदि से पूजा कर जोर-जोर से बाबा की आरती करनी चाहिए। इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को पूरी रात जागरण करना चाहिए। माना जाता और सुना है कि  भैरव बाबा और काल भैरव की सवारी कुत्ता है इसलिए व्रत की समाप्ति पर घर पर पकवान बनाकर सबसे पहले कुत्ते को खिलाना चाहिए। इस दिन कुत्ते को भोजन करने से भैरव बाबा बहुत प्रसन्न होते हैं।
काल भैरव अष्टमी व्रत फल
मान्यता है कि इस व्रत की महिमा से व्रत करने वाले के सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। भूत-प्रेत तथा जादू-टोना जैसी बुरी शक्तियों का उस कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। भैरव बाबा की पूजा और आराधना करने से मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। 
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बहुत समय पहले की बात है  एक साहूकार अपनी पत्नी को लेने के  लिए अपने ससुराल गया। कुछ दिन वहां रहने के उपरांत उसने सास-ससुर से अपनी पत्नी को विदा करने के लिए कहा किंतु सास-ससुर तथा अन्य संबंधियों ने कहा कि "बेटा आज बुधवार है। बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते।" लेकिन वह नहीं माना और हठ करके बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा करवाकर अपने नगर को चल पड़ा। राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी, उसने पति से पीने के लिए पानी मांगा। साहूकार लोटा लेकर गाड़ी से उतरकर जल लेने चला गया। जब वह जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा, क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था। 


पत्नी भी अपने पति को देखकर हैरान रह गई। वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई। साहूकार ने पास बैठे शख्स से पूछा कि तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो? उसकी बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- अरे भाई, यह मेरी पत्नी है। मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूं, लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो? दोनों आपस में झगड़ने लगे। तभी राज्य के सिपाही आए और उन्होंने साहूकार को पकड़ लिया और स्त्री से पूछा कि तुम्हारा असली पति कौन है? उसकी पत्नी चुप रही क्योंकि दोनों को देखकर वह खुद हैरान थी कि वह किसे अपना पति कहे? साहूकार ईश्वर से प्रार्थना करते हुए बोला "हे भगवान, यह क्या लीला है?"

तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे शुभ कार्य के लिए गमन नहीं करना चाहिए था। तूने हठ में किसी की बात नहीं मानी। यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है।


साहूकार ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा याचना की। तब मनुष्य के रूप में आए बुध देवता अंतर्ध्यान हो गए। वह अपनी स्त्री को घर ले आया। इसके पश्चात पति-पत्नी नियमपूर्वक बुधवार व्रत करने लगे। जो व्यक्ति इस कथा को कहता या सुनता है उसको बुधवार के दिन यात्रा करने का कोई दोष नहीं लगता और उसे सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है।
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आचार्य रणजीत स्वामी
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को 'आंवला नवमी' या 'अक्षय नवमी' कहते हैं।  कल दिनांक 9 नवंबर 2016 को इस दिन आंवला वृक्ष की पूजा की जायेगी जिससे अखंड सौभाग्य, आरोग्य, संतान और सुख की प्राप्ति होती है। अक्षय नवमी का शास्त्रों में वही महत्व बताया गया है ।शास्त्रों के अनुसार अक्षय नवमी के दिन किया गया पुण्य कभी समाप्त नहीं होता। इस दिन जो भी शुभ कार्य जैसे दान, पूजा, भक्ति, सेवा की जाती है उसका पुण्य कई-कई जन्म तक प्राप्त होता है।

मान्यतानुसार  कि इस दिन द्वापर युग का आरंभ हुआ था। कहा जाता है कि आज ही विष्णु भगवान ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था और उसके रोम से कुष्माण्ड की बेल हुई। इसी कारण कुष्माण्ड का दान करने से उत्तम फल मिलता है। इसमें गन्ध, पुष्प और अक्षतों से कुष्माण्ड का पूजन करना चाहिये। साथ ही आज के दिन विधि विधान से तुलसी का विवाह कराने से भी कन्यादान तुल्य फल मिलता है।

पूजन विधि।                              
 प्रात:काल स्नान कर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए आंवले के वृक्ष की पूर्व दिशा की ओर उन्मुख होकर षोडशोपचार पूजन करें। दाहिने हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि लेकर व्रत का संकल्प करें। संकल्प के बाद आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके ऊँ धात्र्यै नम: मंत्र से आह्वानादि षोडशोपचार पूजन करके आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें। इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में कच्चे सूत्र लपेटें। फिर कर्पूर या घृतपूर्ण दीप से आंवले के वृक्ष की आरती करें।

 आँवला नवमी की कथा                            
काशी नगर में एक निःसंतान धर्मात्मा और दानी वैश्य रहता था। एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराये बच्चे की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। यह बात जब वैश्य को पता चली तो उसने मना कर दिया। लेकिन उसकी पत्नी मौके की तलाश में लगी रही। एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी। इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ। लाभ की जगह उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया और लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी। वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी। इस पर वैश्य कहने लगा गौवध, ब्राह्मण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार में कहीं जगह नहीं है, इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर गंगा स्नान कर तभी तू इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है।

वैश्य की पत्नी गंगा किनारे रहने लगी। कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्ध महिला का वेष धारण कर उसके पास आयीं और बोली तू मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा कर तथा उसका पूजन कर। यह व्रत करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा। वृद्ध महिला की बात मानकर वैश्य की पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी। ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई।

विष्णु का स्वरूप है आंवला।      
शास्त्रों के अनुसार आंवला, पीपल, वटवृक्ष, शमी, आम और कदम्ब के वृक्षों को चारों पुरुषार्थ दिलाने वाला कहा गया है। इनके समीप जप-तप पूजा-पाठ करने से इंसान के सभी पाप मिट जाते हैं। पद्म पुराण में भगवान शिव ने कार्तिकेय से कहा है 'आंवला वृक्ष साक्षात् विष्णु का ही स्वरूप है। यह विष्णु प्रिय है और इसके स्मरण मात्र से गोदान के बराबर फल मिलता है।'

माता लक्ष्मी से संबंध                  
आंवला वृक्ष की पूजा और इस वृक्ष के नीचे भोजन करने की प्रथा की शुरुआत करने वाली माता लक्ष्मी मानी जाती हैं। इस संदर्भ में कथा है कि एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण करने आयीं। रास्ते में भगवान विष्णु एवं शिव की पूजा एक साथ करने की इच्छा हुई। लक्ष्मी मां ने विचार किया कि एक साथ विष्णु एवं शिव की पूजा कैसे हो सकती है। तभी उन्हें ख्याल आया कि तुलसी एवं बेल का गुण एक साथ आंवले में पाया जाता है। तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है।

आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक चिह्न मानकर मां लक्ष्मी ने आंवले के वृक्ष की पूजा की। पूजा से प्रसन्न होकर विष्णु और शिव प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर विष्णु और भगवान शिव को भोजन करवाया। इसके बाद स्वयं भोजन किया। जिस दिन यह घटना हुई थी उस दिन कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि थी। इसी समय से यह परंपरा चली आ रही है। इस दिन अगर आंवले की पूजा करना और आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन बनाना और खाना संभव न हो तो इस दिन आंवला जरूर खाना चाहिए।

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यह उपवास सप्ताह के दिवस बृहस्पतिवार व्रत कथा को रखा जाता है. किसी भी माह के शुक्ल पक्ष में अनुराधा नक्षत्र और गुरुवार के योग के दिन इस व्रत की शुरुआत करना चाहिए। नियमित सात व्रत करने से गुरु ग्रह से उत्पन्न होने वाला अनिष्ट नष्ट होता है।कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्ध होकर मनोकामना पूर्ति के लिए बृहस्पति देव से प्रार्थना करनी चाहिए। पीले रंग के चंदन, अन्न, वस्त्र और फूलों का इस व्रत में विशेष महत्व होता है।

 
विधि

सूर्योदय से पहले उठकर स्नान से निवृत्त होकर पीले रंग के वस्त्र पहनने चाहिए। शुद्ध जल छिड़ककर पूरा घर पवित्र करें। घर के ही किसी पवित्र स्थान पर बृहस्पतिवार की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। तत्पश्चात पीत वर्ण के गंध-पुष्प और अक्षत से विधिविधान से पूजन करें। इसके बाद निम्न मंत्र से प्रार्थना करें-

धर्मशास्तार्थतत्वज्ञ ज्ञानविज्ञानपारग। विविधार्तिहराचिन्त्य देवाचार्य नमोऽस्तु ते॥ तत्पश्चात आरती कर व्रतकथा सुनें।

बृहस्पतिवार व्रत के दिन क्या करें

इस दिन एक समय ही भोजन किया जाता है। व्रत करने वाले को भोजन में चने की दाल अवश्य खानी चाहिए। बृहस्पतिवार के व्रत में कंदलीफल (केले) के वृक्ष की पूजा की जाती है।
लाभ

बृहस्पतिवार व्रत के पूजन से स्त्री-पुरुष को वृहस्पतिदेव की अनुकम्पा से धन-संपत्ति का अपार लाभ होता है। परिवार में सुख तथा शांति रहती है। स्त्रियों के लिए बृहस्पतिवार का व्रत बहुत शुभ फल देने वाला है। बृहस्पतिवार की पूजा के पश्चात कथा सुनने का विशेष महत्व है। बृहस्पतिवार के व्रत करने और कथा सुनने से विद्या का बहुत लाभ होता है। बृहस्पतिवार का नियमित व्रत रखने वाली स्त्री की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

बृहस्पतिवार व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है- एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था । वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था । यह उसकी रानी को अच्छा न लगता । न वह व्रत करती और न ही इसी को एक पैसा दान में देती । राजा को भी वह ऐसा करने से मना किया करती । एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए । घर पर रानी और दासी थी । उस समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए । साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, "हे साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं । आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूं ।"
साधु रूपी बृहस्पतिदेव ने कहा, "हे देवी! तुम बड़ी विचित्र हो । संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें ।"
परंतु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई । उसने कहा, "मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं अन्य लोगों को दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।"
साधु ने कहा, "यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हे बताता हूं तुम वैसा ही करना । बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना । इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जाएगा।" इतना कहकर साधु बने बृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गए ।
साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई । भोजन के लिए परिवार तरसने लगा । एक दिन राजा रानी से बोला, "हे रानी! तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूं, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है । इसलिए मैं यहां कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता ।" ऐसा कहकर राजा परदेस चला गया । वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता । इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा ।
इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुःखी रहने लगीं । एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, "हे दासी! पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है । वह बड़ी धनवान है । तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए।"
दासी रानी की बहन के पास गई । उस दिन बृहस्पतिवार था । रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी । दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया । जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई । उसे क्रोध भी आया । दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी । सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा ।
उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नही बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी । कथ सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, "हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी । तुम्हारी दासी गई परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते हैं और न बोलते हैं, इसीलिए मैं नहीं बोली । कहो, दासी क्यों गई थी?"
रानी बोली, "बहन! हमारे घर अनाज नहीं था।" ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आईं । उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी । रानी की बहन बोली, "बहन देखो! बृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं । देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो ।"
यह सुनकर दासी घर के अंदर गई तो वहां उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया । उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि उसने एक-एक बर्तन देख लिया था । उसने बाहर आकर रानी को बताया । दासी रानी से कहने लगी, "हे रानी! जब हमको अन्न नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, हम भी व्रत किया करेंगे ।" दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा । उसकी बहन ने बताया, "बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलावें । पीला भोजन करें तथा कथा सुनें । इससे गुरु भगवान बृहस्पति प्रसन्न होते हैं, मनोकामना पूर्ण करते हैं।" व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई ।
रानी और दासी दोनों ने निश्‍चय किया कि बृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरूर करेंगे । सात रोज बाद जब बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा । घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया । अब पीला भोजन कहां से आए । दोनों बड़ी दुखी हुई । परंतु उन्होंने व्रत किया था इसलिए बृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे । एक साधारण व्यक्ति के रूप में वे दो थालों में सुंदर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, "हे दासी! यह भोजन तुम्हारे लिए और तुम्हारी रानी के लिए है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना।"
दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने रानी को सारी बात बताई ।
उसके बाद से वे प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगीं । बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया । परंतु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी । तब दासी बोली, "देखो रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थीं, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया । अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है । बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए । अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, मंदिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओंका विवाह करवाओ अर्थात धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पितर प्रसन्न हों । दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी । उसका यश फैलने लगा ।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगे, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है । उन्होंने श्रद्धापूर्वक गुरु (बृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहां कहीं भी हों, शीघ्र वापस आ जाएं ।
उधर, राजा परदेस में बहुत दुखी रहने लगा । वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता । एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया ।
उसी समय राजा के पास बृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, "हे लकड़हारे! तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ ।" यह सुन राजा के नेत्रों मे जल भर आया । साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपुर्ण कहानी सुना दी । महात्मा दयालु होते हैं । वे राजा से बोले, "हे राजा! तुम्हारी पत्‍नी ने बृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई । अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो । भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे । देखो, तुम्हारी पत्‍नी ने बृहस्पतिवार का व्रत प्रारंभ कर दिया है । अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो । फिर कथा कहो या सुनो । भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगे ।" साधु की बात सुनकर राजा बोला, "हे प्रभो! लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भी नहीं बचता, जिससे भोजन करने के उपरांत कुछ बचा सकूं । मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है । मेरे पास कोई साधन नहीं, जिससे इसका समाचार जान सकूं । फिर मैं बृहस्पतिदेव की क्या कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है।" साधु ने कहा, "हे राजा! मन मे बृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्‍चित करो । वे स्वयं तुम्हारे लिए कोई राह बना देंगे । बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़िया लेकर शहर में जाना । तुम्हें रोज से दुगना धन प्राप्त होगा । जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा । जो तुमने बृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है-
बृहस्पतिदेव की कहानीप्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था । उसके कोई संतान नहीं थी । वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती । इस कारण ब्राह्मण देवता बहुत दुखी रहते थे ।
भगवान की कृपा से ब्राह्मण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई । कन्या बड़ी होने लगी । प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती । बृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी । पूजा-पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जो भरकर ले जाती और पाठशाला जाने के मार्ग में डालती जाती । लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती । एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, "हे बेटी! सोने के जौ को फटकने के लिए सोने का सूप भी तो होना चाहिए।"
दूसरे दिन गुरुवार था । कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की । बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई । पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला । उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी । परंतु उसकी मां का वही ढंग रहा ।
एक दिन की बात है । कन्या सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला । कन्या के रूप को देखकर वह उस पर मोहित हो गया । राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर, उदास होकर लेट गया ।
राजा को जब राजकुमार द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा । राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया । मंत्री उस लड़की के घर गया । मंत्री ने ब्राह्मण के समक्ष राजा की और से निवेदन किया । कुच ही दिन बाद ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ संपन्न हो गया ।
कन्या के घर से जाते ही ब्राह्मण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया । एक दिन दुखी होकर ब्राह्मण अपनी पुत्री से मिलने गए । बेटी ने पिता की अवस्थ अको देखा और अपनी मां का समाचार पूछा । ब्राह्मण ने सभी हाल कह सुनाया । कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया । लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया । ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहा तो पुत्री बोली, "हे पिताजी! आप माताजी को यहां लिवा लाओ । मैं उन्हे वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए।" ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, "हे मां! तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी।" परंतु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी । वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री का बचा झूठन खा लेती थी ।
एक दिन उसकीपुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी मां को एक कोठरी में बंद कर दिया । प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई ।
इसके बाद वह नियम से पूजा-पाठ करने और प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लग । इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई । वह ब्राह्मण भी सुखपूर्वक इस लोक का सूख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ । इस तरह कहानी कहकर साधु देवता वहां से लोप हो गए ।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया । राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया । उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला । राजा ने चन, गुड़ आदि लाकर बृहस्पतिवार का व्रत किया । उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए । परंतु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया । इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए ।
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें । किसी के घर चूल्हा न जले । इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी ।
राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज मे सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसीलिए राजा उसको अपने साथ महल में ले गए । जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पडी, जिस पर उसका हार लटका हुआ था । उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया । रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है । उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया ।
लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन-से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा । तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो गए और कहने लगे, "अरे मूर्ख! तूने बृहस्पति देवता की कथा नहीं की, इसी कारण तुझे दुख प्राप्त हुआ है । अब चिंता मत कर । बृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे जड़े मिलेंगे, उनसे तू बृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे ।"
अगले बृहस्पतिवार उसे जेल के द्वार पर चार पैसे मिले । राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बांटा । उसी रात्रि में बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, "हे राजा! तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना । वह निर्दोष है ।" राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुंदर वस्त्र आभूषण भेंट कर उसे विदा किया ।
गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया । राजा जब नगर के निकट पहुम्चा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ । नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे । राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है । तब नगर के सब लोक कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्वारा बनवाए गए हैं । राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा ।
जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने अपनी दासी से कहा, "हे दासी! देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे । वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा ।" रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई । तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, "बताओ, यह धन तुम्हैं कैसे प्राप्त हुआ है?" तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई ।
राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कथा कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा । अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता ।
एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं । इस तरह का निश्‍चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया । मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं । उन्हें रोककर राजा कहने लगा, "अरे भाइयो! मेरी बृहस्पति की कथा सुन लो ।" वे बोले, "लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है!" परंतु कुछ आदमी बोले, "अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे ।" राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरू कर दी । जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया ।
राजा आगे बढ़ा । उसे चलते-चलते शाम हो गई । आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला । राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना ।
राजा आगे चल पड़ा । राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट मे बहुत जोर से दर्द होने लगा ।
उसी समय किसान की पत्‍नी रोटी लेकर आई । उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा । बेटे ने सभी हाल बता दिया । बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली, "मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना ।" राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गए तथा किसान के पेट का दर्द भी बंद हो गया ।
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया । बहन ने भाई की खूब मेहमानी की । दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं । राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, "ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो । जो मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुनले!" बहन बोली, "हे भैया! यह देश ऐसा ही है । पहले यहां के लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं ।" फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था । उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसी ने भोजन नहीं किया है । रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा । वह तैयार हो गया । राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही, जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया । अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी । एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, "हे बहन! मैं अब अपने घर जाऊंगा, तुम भी तैयार हो जाओ ।" राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी । सास बोली, "चली जा, परंतु अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है ।" बहन ने अपने भाई से कहा, "हे भैया! मैं तो चलूंगी परंतु कोई बालक नहीं जाएगा !" अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया । राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किए वह शय्या पर लेट गया । रानी बोली, "हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगे ।" उसी रात बृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, 'हे राजा! उठ, सभी सोच त्याग दे । तेरी रानी गर्भवती है।" राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई । नवें महीने रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ । तब राजा बोला, "हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परंतु बिना कहे नहीं रह सकती । जब मेरी बहन आए तुम उससे कुछ मत कहना ।" रानी ने 'हां' कर दी । जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई । रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, "जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई । उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई!" तो राजा की बहन बोली, "भाई! मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती?"
बृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते हैं । जो सद्‌भावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं, उनकी सदैव रक्षा करते हैं ।
जो संसार में सद्‌भावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे ह्रदय से करते हैं, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने बृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाए बृहस्पतिदेव ने पूर्ण की । अनजाने में भी बृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करे । ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है । इसलिए सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए । ह्रदय से उनका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए ।
॥इतिश्री बृहस्पतिवार व्रत कथा॥


एक बार गंगाजी के पावन तट पर विराजमान श्री सूत-जी महाराज से शौनकादी ऋषियों ने निवेदन किया- "हमे किसी श्रेष्ट व्रत का विधान बता दे. श्री सूत-जी महाराज  बोले कि- ऋषिगण! अपने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है. एक बार महर्षि वेदव्यास जी ने प्रथापुत्र युधिष्ठिर को गुप्त संपत्तियों के निधि स्वरुप तथा नष्ट राज्य की प्राप्ति करने वाला श्री हनुमान-जी का व्रत कहा था. उन्होंने बताया कि यह व्रत भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपदी के लिए कहा था.  द्रोपदी ने हनुमान व्रत का आरंभ किया और उनका डोरा गले में बांध लिया. किसी समाया अर्जुन ने उस सोरे को बंधा   देखा तो बोले- "यह व्यर्थ का डोरा क्यों बांधा है ?" द्रोपदी ने मधुर शव्दों में कहा- "भगवान श्री कृष्ण के निर्देशानुसार मैं हनुमान व्रत करती हुआ. यह डोरा उसी का है. यह सुनकर अर्जुन क्रुद्ध हो  गए और बोले- "अरे! वह बन्दर तो हमारे रथ की ध्वजा पर निरंतर लटका रहता है, वह तुम्हे क्या दे सकता है? श्री कृष्ण भी तो कपटी है, उन्होंने हसी में ऐसा कह दिया होगा. अब तुम इस डोरे को उतारकर फेक दो." द्रोपदी को अर्जुन की आज्ञा माननी पड़ी. उसने उस डोरे को गले से खोलकर उधन में सुरक्षित रखा दिया. हे  युधिष्ठिर! हनुमान-जी के डोरे का परित्याग ही तुम्हारी वर्तमान विपित्त का कारण है. उसी के फलस्वरूप तुम्हारा प्राप्त ऐश्वर्य सहसा नष्ट हो गया. उस डोरे में तेरह ग्रंथियां  है, इसलिए तुम्हे तेरह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा. यदि उस डोरे का परित्याग न किया तो यह तेरह वर्ष सुखपूर्वक ही व्यतीत होते.
जब व्यास-जी यह चर्चा कर रहे थे तब द्रपादी भी वहां मौजूद थी. उसने स्वीकार किया कि- "भगवन श्री वेदव्यास का कथन सत्य है." व्यास-जी पुन: बोले- "हे युधिष्ठिर! यदि तुम इस व्रतकथा को सुनना चाहते हो तो ध्यानपूर्वक सुनो.-
जब श्री सीता-जी की खोज करते हुई भगवन रामचंद्र-जी अपने अनुज सहित ऋष्यमूक पर्वत पर पधारे तब उन्होंने सुग्रीव के साथ हनुमान-जी को भी देखा और तब हनुमान-जी ने उनके साथ मित्रता स्थापित की और बोले-" हे महाबोहो श्री रामचंद्र-जी मैं आपका कार्य करने को आतुर हूँ. आपका भक्त हुआ. पहले इन्द्र ने मेरी हनु पर व्रज से प्रहार किया था इसीलिए पृथ्वी पर मैं हनुमान नाम से विख्यात हुआ. उस समय मेरे पिता वायु, क्रोध में यह कहरे हुए अद्रश्य हो गए कि जिसने मेरे पुत्र को मारा है. उसे नष्ट कर दूगा. तदनन्तर ब्रह्मा देवताओ ने प्रकट होकर कहा- हे अंजनीपुत्र! तुम्हारे लिए इस वज्र का प्रहार व्यर्थ है और तुम अमित पराक्रमी होकर अपने व्रत के नायक होकर राम कार्य को करो. तुम्हारे इस व्रत के करने वाले की सभी कामनाए  पूर्ण होगी. इस व्रत का अनुष्ठान पहले श्री राम चन्द्र-जी ने भी किया था. यह कहकर देवगण चले गए. अब हे नाथ! हे रामचंद्र जी! आप इस व्रत को अवश्य कीजिए."
हनुमान जी की बात का समर्थन आकाशवाणी ने भी किया. तब श्री राम ने हनुमान-जी से व्रत का विधान पूछा. तब हनुमान जी बोले- "जब मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में तेरह घटी त्रयोदशी व अभिजित नक्षत्र हो तब पीले डोरे में तेरह गत लगाकर उसे कलश में रखे और फिर 'ॐ   नमो भगवते वायुनान्दनाय' मंत्र से मेरा आवाहन तथा पीले चन्दन, पीले पुष्प और अर्चानोचित सामग्री से मेरा पूजन करे. पूजन में ॐकार मंत्र द्वारा षोडशोपचार करने चाहिए. गेहूं के आटे के तेरह मालपुआ, तांबूल व दक्षिणा ब्राह्मण को दे तथा भोजन भी कराए. यह व्रत तेरह वर्ष पूर्ण होने तक नियमपूर्वक करे तथा तेरह वर्ष बाद विधिवत उद्यापन करे. "इस प्रकार हनुमान जी ने कहा. यह व्रत लक्ष्मण जी, विभीषण, सुग्रीव व श्री राम चन्द्र जी भी किया था. इस व्रत का साधन करने वाले साधक की शिर हनुमान जी सहायता करते है.   हे युधिष्ठिर! इस मार्गशीर्ष मास में तुम भी इस व्रत को करो तो तुम्हे राज्य की पुन: प्राप्ति हो सकती है.
व्यास जी द्वारा व्रत की ऐसी महिमा सुनकर समुद्र तट पर रात्रि व्यतीत करने के पश्चात् दुसरे दिन  युधिष्ठिर ने व्यास जी के समाखा ही द्रोपती के साथ यह व्रत, प्यास मिया घ्रात्ता हवि से होम तथा  'ॐ   नमो भगवते वायुनान्दनाय'  से श्री हनुमान जी का आवाहन पूजन किया. इसके फलस्वरूप युधिष्ठिर को उसी वर्ष राज्य की पुन: प्राप्ति हो गई. इसलिए हे ऋषि-गण! अप भी इस व्रत को करसे सफल मनोरथ को प्राप्त कर सकते है. तब उन ऋषियों ने भी इस श्री हनुमान व्रत को किया.
     इस हनुमान-व्रत सबंधी कल्प का पथ करने, सुनने तथा सुनाने से सभी मनोरथ पूर्ण होते है.
स्कन्द षष्ठी का व्रत कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है। यह व्रत 'संतान षष्ठी' नाम से भी जाना जाता है। स्कंदपुराण के नारद-नारायण संवाद में संतान प्राप्ति और संतान की पीड़ाओं का शमन करने वाले इस व्रत का विधान बताया गया है। एक दिन पूर्व से उपवास करके षष्ठी को 'कुमार' अर्थात् कार्तिकेय की पूजा करनी चाहिए। तमिल प्रदेश में स्कन्दषष्ठी महत्त्वपूर्ण है और इसका सम्पादन मन्दिरों या किन्हीं भवनों से होता है।

प्राचीनता एवं प्रमाणिकता
इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता स्वयं परिलक्षित होती है। इस कारण यह व्रत श्रद्धाभाव से मनाया जाने वाले पर्व का रूप धारण करता है। स्कंद षष्ठी के संबंध में मान्यता है कि राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक इससे जुड़ा है। कहते हैं कि स्कंद षष्ठी की उपासना से च्यवन ऋषि को आँखों की ज्योति प्राप्त हुई। ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताया गया है कि स्कंद षष्ठी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो जाता है। स्कन्द षष्ठी पूजा की पौरांणिक परम्परा है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कन्द की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा कर रक्षा की थी। इनके छह मुख हैं और उन्हें 'कार्तिकेय' नाम से पुकारा जाने लगा। पुराण व उपनिषद में इनकी महिमा का उल्लेख मिलता है।

निर्णयामृत में इतना और आया है कि भाद्रपद की षष्ठी को दक्षिणापथ में कार्तिकेय का दर्शन लेने से ब्रह्महत्या जैसे गम्भीर पापों से मुक्ति मिल जाती है। हेमाद्रि, कृत्यरत्नाकर ने ब्रह्म पुराण से उद्धरण देकर बताया है कि स्कन्द की उत्पत्ति अमावास्या को अग्नि से हुई थी, वे चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी को प्रत्यक्ष हुए थे, देवों के द्वारा सेनानायक बनाये गये थे तथा तारकासुर का वध किया था, अत: उनकी पूजा, दीपों, वस्त्रों, अलंकरणों, मुर्गों (खिलौनों के रूप में) आदि से की जानी चाहिए अथवा उनकी पूजा बच्चों के स्वास्थ्य के लिए सभी शुक्ल षष्ठियों पर करनी चाहिए। तिथितत्त्व  ने चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी को स्कन्दषष्ठी कहा है।
आवश्यक सामग्री

भगवान शालिग्राम जी का विग्रह, कार्तिकेय का चित्र, तुलसी का पौधा (गमले में लगा हुआ), तांबे का लोटा, नारियल, पूजा की सामग्री, जैसे- कुंकुम, अक्षत, हल्दी, चंदन अबीर, गुलाल, दीपक, घी, इत्र, पुष्प, दूध, जल, मौसमी फल, मेवा, मौली आसन इत्यादि। यह व्रत विधिपूर्वक करने से सुयोग्य संतान की प्राप्ति होती है। संतान को किसी प्रकार का कष्ट या रोग हो तो यह व्रत संतान को इन सबसे बचाता है।
पूजन

स्कंद षष्ठी के अवसर पर शिव-पार्वती को पूजा जाता है। मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इसमें स्कंद देव (कार्तिकेय) की स्थापना करके पूजा की जाती है तथा अखंड दीपक जलाए जाते हैं। भक्तों द्वारा स्कंद षष्ठी महात्म्य का नित्य पाठ किया जाता है। भगवान को स्नान कराया जाता है, नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और उनकी पूजा की जाती है। इस दिन भगवान को भोग लगाते हैं, विशेष कार्य की सिद्धि के लिए इस समय कि गई पूजा-अर्चना विशेष फलदायी होती है। इसमें साधक तंत्र साधना भी करते हैं, इसमें मांस, शराब, प्याज, लहसुन का त्याग करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का संयम रखना आवश्यक होता है।
कथा

भगवान कार्तिकेय की जन्म कथा के विषय में पुराणों में ज्ञात होता है कि जब दैत्यों का अत्याचार ओर आतंक फैल जाता है और देवताओं को पराजय का समाना करना पड़ता है। जिस कारण सभी देवता भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचते हैं और अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मा उनके दु:ख को जानकर उनसे कहते हैं कि तारक का अंत भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है, परंतु सती के अंत के पश्चात भगवान शिव गहन साधना में लीन हुए रहते हैं। इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शिव उनकी पुकार सुनकर पार्वती से विवाह करते हैं। शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है और कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं।[2]
महत्त्व

भगवान स्कंद शक्ति के अधिदेव हैं, देवताओं ने इन्हें अपना सेनापतित्व प्रदान किया था। मयूर पर आसीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत मे सबसे ज्यादा होती है, यहाँ पर यह 'मुरुगन' नाम से विख्यात हैं। प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन सभी कुछ इनकी कृपा से सम्पन्न होते हैं। स्कन्दपुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय ही हैं तथा यह पुराण सभी पुराणों में सबसे विशाल है। स्कंद भगवान हिंदू धर्म के प्रमुख देवों मे से एक हैं। स्कंद को कार्तिकेय और मुरुगन नामों से भी पुकारा जाता है। दक्षिण भारत में पूजे जाने वाले प्रमुख देवताओं में से एक भगवान कार्तिकेय शिव पार्वती के पुत्र हैं। कार्तिकेय भगवान के अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिलनाडु में होती है। भगवान स्कंद के सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिलनाडू में ही स्थित हैं।
शीतला अष्टमी हिन्दुओं का एक त्योहार है जिसमें शीतला माता के व्रत और पूजन किये जाते हैं। ये होली सम्पन्न होने के अगले सप्ताह में बाद करते हैं। प्रायः शीतला देवी की पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि से प्रारंभ होती है, लेकिन कुछ स्थानों पर इनकी पूजा होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार अथवा गुरुवार के दिन ही की जाती है।शीतला की पूजा का विधान भी विशिष्ट होता है। शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग यानि बसौड़ा तैयार कर लिया जाता है। अष्टमी के दिन बासी पदार्थ ही देवी को नैवेद्य के रूप में समर्पित किया जाता है, और भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। इस कारण से ही संपूर्ण उत्तर भारत में शीतलाष्टमी त्यौहार, बसौड़ा के नाम से विख्यात है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन के बाद से बासी खाना खाना बंद कर दिया जाता है। ये ऋतु का अंतिम दिन होता है जब बासी खाना खा सकते हैं।

माहात्म्य

प्राचीनकाल से ही शीतला माता का बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी शीतला का वाहन गर्दभ बताया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन(झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रतामें वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत:कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है।  स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:
                                          “     वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।

                                                मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।    „


                                                                                अर्थात

गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवालीभगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत:स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी [झाडू] होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।

मान्यता अनुसार इस व्रत को करनेसे शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियोंके चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।

विधान

शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है। आज भी लाखों लोग इस नियम का बड़ी आस्था के साथ पालन करते हैं। शीतला माता की उपासना अधिकांशत: वसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीतला (चेचक रोग) के संक्रमण का यही मुख्य समय होता है। इसलिए इनकी पूजा का विधान पूर्णत: सामयिक है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है। आधुनिक युग में भी शीतला माता की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा देने के कारण सर्वथा प्रासंगिक है। भगवती शीतला की उपासना से स्वच्छता और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की प्रेरणा मिलती है।

अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन किया जाता है। पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय होई का पूजन किया जाता है। तारों को करवा से अर्घ्य भी दिया जाता है। यह होई गेरु आदि के द्वारा दीवाल पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर होई काढकर पूजा के समय उसे दीवाल पर टांग दिया जाता है।

होई के चित्रांकन में ज्यादातर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास साही तथा उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं। करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद अष्टमी तिथि को देवी अहोई माता का व्रत किया जाता है । यह व्रत पुत्र की लम्बी आयु और सुखमय जीवन की कामना से पुत्रवती महिलाएं करती हैं । कृर्तिक मास की अष्टमी तिथि को कृष्ण पक्ष में यह व्रत रखा जाता है इसलिए इसे अहोई अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है।
विधि
उत्तर भारत के विभिन्न अंचलों में अहोईमाता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की होई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है। तत्पश्चात एक पाटे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। अहोईअष्टमी की दो लोक कथाएं प्रचलित हैं। प्राचीन काल में एक साहुकार था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थी। इस साहुकार की एक बेटी भी थी जो दीपावली में ससुराल से मायके आई थी। दीपावली पर घर को लीपने के लिए सातों बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गई तो ननद भी उनके साथ हो ली। साहुकार की बेटी जहां मिट्टी काट रही थी उस स्थान पर स्याहु (साही) अपने साथ बेटों से साथ रहती थी। मिट्टी काटते हुए ग़लती से साहूकार की बेटी की खुरपी के चोट से स्याहू का एक बच्चा मर गया। स्याहू इस पर क्रोधित होकर बोली मैं तुम्हारी कोख बांधूंगी। स्याहू के वचन सुनकर साहूकार की बेटी अपनी सातों भाभीयों से एक एक कर विनती करती हैं कि वह उसके बदले अपनी कोख बंधवा लें। सबसे छोटी भाभी ननद के बदले अपनी कोख बंधवाने के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद छोटी भाभी के जो भी बच्चे होते हैं वे सात दिन बाद मर जाते हैं। सात पुत्रों की इस प्रकार मृत्यु होने के बाद उसने पंडित को बुलवाकर इसका कारण पूछा। पंडित ने सुरही गाय की सेवा करने की सलाह दी। सुरही सेवा से प्रसन्न होती है और उसे स्याहु के पास ले जाती है। रास्ते थक जाने पर दोनों आराम करने लगते हैं अचानक साहुकार की छोटी बहू की नज़र एक ओर जाती हैं, वह देखती है कि एक सांप गरूड़ पंखनी के बच्चे को डंसने जा रहा है और वह सांप को मार देती है। इतने में गरूड़ पंखनी वहां आ जाती है और खून बिखरा हुआ देखकर उसे लगता है कि छोटी बहु ने उसके बच्चे के मार दिया है इस पर वह छोटी बहू को चोंच मारना शुरू कर देती है। छोटी बहू इस पर कहती है कि उसने तो उसके बच्चे की जान बचाई है। गरूड़ पंखनी इस पर खुश होती है और सुरही सहित उन्हें स्याहु के पास पहुंचा देती है। वहां स्याहु छोटी बहू की सेवा से प्रसन्न होकर उसे सात पुत्र और सात बहु होने का अशीर्वाद देती है। स्याहु के आशीर्वाद से छोटी बहु का घर पुत्र और पुत्र वधुओं से हरा भरा हो जाता है। अहोई का अर्थ एक प्रकार से यह भी होता है "अनहोनी को होनी बनाना" जैसे साहुकार की छोटी बहू ने कर दिखाया था। अहोई व्रत का महात्मय जान लेने के बाद आइये अब जानें कि यह व्रत किस प्रकार किया जाता है।


हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रदोष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है। मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेवजी कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह केसातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है।

 अगर प्रदोष  व्रत
    रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे ।
    सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलितहोती है ।
    मंगलवार कोप्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।
    बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होतीहै।
    बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्र प्रदोष व्रत सेसौभाग्य की वृद्धि होती है।
    शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होतीहै।

रमा एकादशी व्रत कार्तिक मास के कृ्ष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है. वर्ष 2011 में 23 अक्तूबर के दिन रमा एकादशी व्रत किया जायेगा. इस दिन भगवान श्री केशव का संपूर्ण वस्तुओं से पूजन किया जाता है. इस एकादशी के दिन नैवेद्ध तथा आरती कर प्रसाद वितरित करके ब्राह्माणों को खिलाया जाता है. और दक्षिणा भी बांटी जाती है.
रमा एकादशी व्रत फल
कार्तिक मास के कृ्ष्णपक्ष की एकादशी का नाम रमा एकादशी है. इस एकादशी को रम्भा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. इसका व्रत करने से समस्त पाप नष्ट होते है.
रमा एकादशी व्रत कथा
प्राचीन काल की बात है, एक बार मुचुकुन्द नाम का एक राजा राज्य करता था. उसके मित्रों में इन्द्र, वरूण, कुबेर और विभीषण आदि थे. वह प्रकृ्ति से सत्यवादी था.  तथा वह श्री विष्णु का परम भक्त था. उसका राज्य में कोई पाप नहीं होता है. उसके यहां एक कन्या ने जन्म लिया. बडे होने पर उसने उस कन्या का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र साभन के साथ किया.
एक समय जब चन्द्रभागा अपने ससुराल में थी, तो एक एकादशी पडी. एकादशी का व्रत करने की परम्परा उसने मायके से मिली थी. चन्द्रभागा का पति सोचने लगा कि मैं शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर हूँ. मैं इस एकादशी के व्रत को नहीं कर पाऊंगा. व्रत न करने की बात जब चन्द्रभागा को पता चली तो वह बहुत परेशान हुई़.
चन्द्रभागा ने कहा कि मेरे यहां एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं कर सकता. अगर आप भोजन करना ही चाहते है, तो किसी ओर स्थान पर चले जाईये़ यदि आप यहां पर रहेगें, तो आपको व्रत अवश्य ही करना पडेगा. अपनी पत्नी की यह बात सुनकर शोभन बोला कि तब तो मैं यही रहूंगा और व्रत अवश्य ही करूंगा.
यह सोच कर उसने एकादशी का व्रत किया, व्रत में वह भूख प्यास से पीडित होने लगा. सूर्य भगवान भी अस्त हो गए. और जागरण की रात्रि हुई़. वह रात्रि सोभन को दु:ख देने वाली थी. दूसरे दिन प्रात: से पूर्व ही सोभन इस संसार से चल बसा.
राजा ने उसके मृ्तक शरीर को दहन करा दिया. चन्द्रभागा अपने पति की आज्ञानुसार अपने पिता के घर पर ही रही़. रमा एकादशी के प्रभाव से सोभन को एक उतम नगर प्राप्त हुआ, जो सिंहासन से युक्त था, परन्तु यह राज्य अध्रुव ( अदृश्य)  था. यह एक ऎसा राज्य था. जो अपने आप में अनोखा था.
एक बार उसकी पत्नी के राज्य का एक ब्राह्माण भ्रमण के लिए निकला, उसने मार्ग में सोभन का नगर देखा. और सोभन ने उसे बताया कि उसे रमा एकादशी के प्रभाव से यह नगर प्राप्त हुआ है. सोभन ने ब्राह्माण से कहा की मेरी पत्नी चन्द्र भागा से इस नगर के बारे में और मेरे बारे में कहना. वह सब ठिक कर देगी.
ब्राह्माण ने वहां आकर चन्द्रभागा को सारा वृ्तान्त सुनाया. चन्द्रभागा बचपन से ही एकादशी व्रत करती चली आ रही थी. उसने अपनी सभी एकादशियों के प्रभाव से अपने पति और उसके राज्य को यथार्थ का कर दिया. और अन्त में अपने पति के साथ दिव्यरुप धारण करके तथा दिव्य वस्त्र अंलकारों से युक्त होकर आनन्द पूर्वक अपने पति के साथ रहने लगी. जो जन रमा एकादशी का व्रत करते है. उनके ब्रह्माहत्या आदि के पाप नष्ट होते है.
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